जनवरी, 1739, मुग़ल साम्राज्य तब दुनिया के सबसे अमीर साम्राज्यों में था. क़रीब-क़रीब पूरे उत्तर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के बड़े हिस्से पर तख़्त-ए-ताऊस पर बैठने वाला बादशाह हुकूमत करता था.
इसी तख़्त-ए-ताऊस यानी मयूर सिंहासन या पीकॉक थ्रोन के ऊपरी हिस्से में दुनिया का सबसे मशहूर हीरा कोहिनूर चमकता रहता था.
हालांकि औरंगज़ेब के निधन के बाद से मुग़ल साम्राज्य के रसूख़ में लगातार गिरावट आ रही थी फिर भी काबुल से कर्नाटक तक के उपजाऊ भूमि वाले इलाके़ पर मुग़लों का नियंत्रण था.
विलियम डैलरिंपल और अनीता आनंद अपनी किताब 'कोहिनूर द स्टोरी ऑफ़ द वर्ल्ड्स मोस्ट इनफ़ेमस डायमंड' में लिखते हैं, "उस ज़माने में मुग़लों की राजधानी दिल्ली की आबादी क़रीब 20 लाख थी जो लंदन और पेरिस की कुल आबादी से भी अधिक थी."
दिल्ली को इस्तांबुल और टोक्यो के बीच सबसे समृद्ध और भव्य शहर माना जाता था.
इस साम्राज्य के बादशाह थे मोहम्मद शाह, जिनके नाम के साथ हमेशा 'रंगीला' शब्द जोड़ा जाता था.
ज़हीरउद्दीन मलिक अपनी किताब 'द रेन ऑफ़ मोहम्मद शाह' में लिखते हैं, "जब सन 1719 में मोहम्मद शाह ने दिल्ली की गद्दी संभाली तो उनकी उम्र थी 18 साल. उनका असली नाम था रोशन अख़्तर. वो जहानशाह के बेटे और औरंगज़ेब के पोते थे. उनकी क़द काठी मज़बूत थी. गद्दी संभालने के बाद वो तीरंदाज़ी का अभ्यास करते थे और अक्सर शिकार खेलने चले जाते थे."
मलिक लिखते हैं कि कुछ वक़्त बाद अफ़ीम की लत की वजह से उनके पेट में तकलीफ़ शुरू हो गई थी और उनकी सेहत गिरने लगी थी, वो सामान्य ढंग से घोड़ा चलाने लायक नहीं रह गए थे.
लखनऊ के घोड़े की काठी बनाने वाले एक कारीगर अज़फ़री ने उनके इस्तेमाल के लिए एक ख़ास काठी बनाई थी. मोहम्मद शाह कभी-कभी इसकी मदद से घोड़े पर बैठ पाते थे वरना वो घूमने के लिए पालकी या हाथी पर 'तख़्ते-ए-रवां' का सहारा लेते थे.

मोहम्मद शाह के बारे में मशहूर था कि वो सौंदर्य के पुजारी थे. उनको महिलाओं के बाहरी वस्त्र 'पेशवाज़' और मोती जड़े जूते पहनने का शौक था.
उनके दरबार में संगीत और पेंटिंग को बहुत बढ़ावा दिया जाता था. मोहम्मद शाह 'रंगीला' को ही सितार और तबले को लोक संगीत की परंपरा से बाहर निकालकर दरबार तक लाने का श्रेय दिया जाता है.
उन्होंने ही मुग़ल मिनिएचर पेंटिंग कला को पुनर्जीवित किया. उनके दरबार में निधामल और चितरमन जैसे नामी कलाकार रहा करते थे जिन्हें मुग़ल दरबारी जीवन और होली खेलने के चित्रण करने में महारत हासिल थी, जिसमें बादशाह को यमुना नदी के किनारे होली खेलते और लाल किले की वाटिकाओं में अपने दरबारियों से मंत्रणा करते दिखाया गया था.
औरंगज़ेब के 'कट्टर' और 'नैतिकतावादी' शासन के बाद मोहम्मद शाह के राज में दिल्ली में कला, नृत्य, संगीत और साहित्यिक लेखन का ऐसा माहौल पैदा हुआ था जो पहले कभी नहीं देखा गया था.
लेकिन मोहम्मद शाह 'रंगीला' लड़ाई के मैदान के योद्धा कतई नहीं थे. वो सत्ता में सिर्फ़ इसलिए बने रहे क्योंकि उन्होंने बार-बार ये आभास दिया कि उनकी राज करने में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है.
विलियम डेलरिंपल और अनीता आनंद लिखते हैं, "उनकी सुबह तीतरों और हाथियों की लड़ाई देखने में बीतती थी. दोपहर बाद बाज़ीगर और लोगों की नक़ल उतारने वाले लोग उनका मनोरंजन करते थे. शासन का ज़िम्मा उन्होंने अपने सलाहकारों को दे रखा था."
मोहम्मद शाह 'रंगीला' के शासनकाल में सत्ता दिल्ली के हाथों से फिसलकर क्षत्रपों के पास पहुंच गई और उन्होंने राजनीति, अर्थव्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर ख़ुद फ़ैसले लेने शुरू कर दिए.
दो क्षेत्रीय क्षत्रप उत्तर में अवध के नवाब सआदत ख़ाँ और दक्षिण के निज़ाम-उल-मुल्क स्वायत्त शासक के रूप में अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगे थे.
मोहम्मद शाह 'रंगीला' का दुर्भाग्य था कि पश्चिम में उनके राज्य की सीमा फ़ारसी बोलने वाले आक्रामक तुर्क नादिर शाह से मिलती थी.
नादिर शाह का चरित्र चित्रण करते हुए फ़्रेंच लेखक पेरे लुई बाज़ां ने अपनी आत्मकथा में लिखा था, "नादिर शाह ने अपनी दाढ़ी काले रंग में रंग रखी थी जबकि उसके सिर के बाल पूरी तरह से सफ़ेद थे. उसकी आवाज़ कर्कश और भारी थी लेकिन जब उसका मतलब होता था वो इसे मृदु बना लेता था. उसका कोई निश्चित ठिकाना नहीं था. उसका दरबार सैनिक छावनी में लगता था. उसका महल तंबुओं में होता था."
कंधार पर हमला करने से पहले ही इस तरह की अफ़वाहें फैल चुकी थीं कि नादिर शाह गुप्त रूप से मुग़लों के ख़ज़ाने को लूटने के लिए दिल्ली पर हमला करने की योजना बना रहा है. उसने इसके लिए पहले से ही दो बहाने खोज लिए थे.
विलियम डेलरिंपल और अनीता आनंद लिखते हैं, "मुग़लों ने नादिर शाह की तानाशाही से बचकर भागे कुछ ईरानी विद्रोहियों को शरण दी थी. इसके अलावा मुग़लों के सीमा कर अधिकारियों ने ईरानी राजदूत का कुछ सामान ज़ब्त कर लिया था. नादिर शाह ने अपने दूत दिल्ली भेजकर शिकायत की थी कि मुग़ल मित्रों की तरह व्यवहार नहीं कर रहे हैं लेकिन इसका मोहम्मद शाह रंगीला पर कोई असर नहीं पड़ा था."
तीन महीने बाद नादिर शाह ने दिल्ली से 100 मील उत्तर में करनाल में मुग़लों की तीन सेनाओं को हराया. इसमें से एक सेना दिल्ली की थी और बाकी दो सेनाएं अवध और दक्कन से थीं.

जब मुग़ल सेना घिर गई और रसद ख़त्म होने लगी तो नादिर शाह ने मोहम्मद शाह 'रंगीला' को समझौता करने के लिए बुलवाया.
माइकल एक्सवर्दी ने अपनी किताब 'सोर्ड ऑफ़ पर्सिया' में लिखा, "नादिर शाह ने रंगीला की ख़ूब ख़ातिर की लेकिन उन्हें वापस नहीं जाने दिया. उनके अंगरक्षकों के हथियार ले लिए गए और नादिर शाह ने उनके चारों तरफ़ अपने सैनिक तैनात कर दिए. अगले दिन नादिर शाह के सैनिक मुग़ल शिविर में जाकर मोहम्मद शाह रंगीला के पूरे हरम और नौकरों को उठा लाए. इसके बाद उनके दरबारियों को उनके पास लाया गया. अगले दिन नेतृत्व विहीन और भूख से परेशान मुग़ल सेना से कहा गया कि वो अपने घर जा सकते हैं."
इस तरह मुग़ल सेना के सारे संसाधन नादिर शाह के कब्ज़े में आ गए.
मेहदी अशराबादी अपनी किताब 'तारीख़-ए-जहाँ कुशा-ए-नादरी' में लिखते हैं, "एक सप्ताह बाद जब मोहम्मद शाह रंगीला दिल्ली में घुसे तो पूरे शहर में सन्नाटा पसर गया. अगले दिन 20 मार्च को नादिर शाह 100 हाथियों के जुलूस के साथ दिल्ली में घुसा. आते ही उसने लाल क़िले में दीवान-ए-ख़ास के पास शाहजहाँ के शयनकक्ष में अपना डेरा डाला जबकि मोहम्मद शाह ने असद बुर्ज के पास वाली इमारत में रहना शुरू कर दिया."
मोहम्मद शाह ने सारा शाही ख़ज़ाना नादिर शाह के हवाले कर दिया जिसे नादिर शाह ने ओढ़ी हुई झिझक के साथ स्वीकार कर लिया. 21 मार्च को बक़रीद के दिन दिल्ली की सभी मस्जिदों में नादिर शाह के नाम से ख़ुतबा पढ़ा गया. उसी दिन दिल्ली की टकसाल में नादिर शाह के नाम से सिक्के ढाले गए.

अगले दिन मुग़ल राजधानी के इतिहास का सबसे दुखदायी दिन था. जैसे ही नादिर शाह की सेना दिल्ली में घुसी, अनाज के दाम अचानक बढ़ गए. जब नादिर शाह के सैनिकों ने पहाड़गंज में व्यापारियों से मोल-भाव करने की कोशिश की तो उन्होंने उनकी बात नहीं मानी और दोनों पक्षों के बीच झड़प हो गई.
विलियम डेलरिंपल और अनीता आनंद लिखते हैं, "जल्द ही अफ़वाह फैल गई कि नादिर शाह को क़िले के एक रक्षक ने मार डाला है. अचानक भीड़ ने जहाँ भी मौक़ा मिला नादिर शाह के सैनिकों पर हमला करना शुरू कर दिया. दोपहर तक नादिर शाह की सेना के 900 सैनिक मारे जा चुके थे. नादिर शाह ने इसका जवाब क़त्ल-ए-आम के आदेश से दिया."
अगले दिन वो ख़ुद तड़के इस क़त्ल-ए-आम की निगरानी करने लाल क़िले से बाहर निकला और चाँदनी चौक के पास कोतवाली चबूतरे पर अपना डेरा जमा दिया. क़त्ल-ए-आम ठीक नौ बजे शुरू हुआ. सबसे ज़्यादा लोग लाल क़िले के पास चाँदनी चौक, दरीबा और जामा मस्जिद के पास मारे गए.
कई घरों में आग लगा दी गई. लोगों की लाशों से उठ रही बदबू ने पूरे शहर को घेर लिया. उस दिन दिल्ली के क़रीब 30 हज़ार लोगों का क़त्ल किया गया.
विलेम फ़्लोर ने अपने लेख 'न्यू फ़ैक्ट्स ऑन नादिरशाहज़ इंडिया कैम्पेन' में एक डच प्रत्यक्षदर्शी मैथ्यूज़ वैन लेपसाई के हवाले से लिखा, "सआदत ख़ाँ ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली. निज़ाम ने सिर पर बिना कुछ पहने अपने हाथों को अपने साफ़े से बाँध कर घुटनों के बल बैठकर नादिर शाह से विनती की कि दिल्ली के लोगों पर रहम खाकर उनके बदले उसे सज़ा दी जाए. नादिर शाह ने अपने सैनिकों को क़त्ल-ए-आम रोकने का आदेश दिया लेकिन एक शर्त भी रखी कि दिल्ली छोड़ने से पहले उसे 100 करोड़ रुपये हर्जाने के तौर पर दिए जाएं."
दिल्ली के लोगों को लूटना और उन्हें यातनाएं देना जारी रहा लेकिन हत्याएं रोक दी गईं.
अगले कुछ दिनों तक मोहम्मद शाह 'रंगीला' ने अपने-आप को ऐसी स्थिति में पाया जब उसे नादिर शाह को भारी रक़म चुकाने के लिए अपनी ही राजधानी के लोगों को बाध्य करना पड़ा.
आनंद राम मुख़लिस ने 'तज़किरा' में लिखा, "पूरी दिल्ली को पाँच भागों में बाँट दिया गया और हर एक भाग से एक बड़ी रक़म की माँग की गई. न सिर्फ़ ज़बरदस्ती धन ले लिया गया बल्कि पूरे के पूरे परिवार बर्बाद हो गए. बहुत से लोगों ने ज़हर खा लिया और कुछ लोगों ने चाकू से अपने जीवन का अंत कर दिया. संक्षेप में 348 सालों से जमा किया हुआ धन एक झटके में किसी दूसरे का हो गया."

जब ये सब कुछ चल रहा था नादिर शाह मोहम्मद शाह 'रंगीला' के लिए बाहरी तौर से दयालुता और शिष्टाचार की प्रतिमूर्ति बना हुआ था. लेकिन असलियत में मोहम्मद शाह को नादिर शाह के बग़ल में इस तरह खड़ा किया जाता था मानो वो उनके अर्दली हों.
एक महीने बाद 12 मई को नादिर शाह ने दरबार बुलाया और मोहम्मद शाह रंगीला के सिर पर एक बार फिर हिंदुस्तान का ताज रख दिया.
मशहूर इतिहासकार आरवी स्मिथ ने द हिंदू में छपे अपने लेख 'ऑफ़ नूर एंड कोहिनूर' में लिखा, "ये वो मौक़ा था जब नादिर शाह को नर्तकी नूर बाई से पता चला कि मोहम्मद शाह रंगीला ने कोहिनूर हीरा अपनी पगड़ी में छिपा रखा है. नादिर शाह ने मोहम्मद शाह से कहा कि हम दोनों भाइयों जैसे हैं इसलिए हमें अपनी पगड़ियाँ बदल लेनी चाहिए."
डेलरिंपल लिखते हैं, "ये कहानी भले ही लोगों को दिलचस्प लगे लेकिन उस समय के किसी भी स्रोत में इसका ज़िक्र नहीं मिलता और सिर्फ़ 19वीं सदी के बाद इसका ज़िक्र इतिहास की किताबों में होने लगा. एक मुग़ल दरबारी जुगल किशोर ने ज़रूर इस बात का ज़िक्र किया कि नादिर ने मोहम्मद शाह रंगीला को अपनी पगड़ी दी थी."
14 मई को दिल्ली में 57 दिन बिताने के बाद नादिर शाह ने ईरान का रुख़ किया. वो अपने साथ मुग़लों की आठ पीढ़ियों का जमा किया हुआ सारा धन ईरान ले गया.
ईरान के इतिहासकार मोहम्मद काज़ेम मारवी अपनी किताब 'आलमआरा-ये नादेरी' में लिखते हैं, "नादिर शाह के लूटे हुए धन में सबसे बड़ी चीज़ थी तख़्त-ए-ताऊस. सारी लूट जिसमें अनमोल सोना, चाँदी और क़ीमती रत्न थे, 700 हाथियों, चार हज़ार ऊँटों और 12 हज़ार घोड़ों पर लादकर ईरान पहुंचाई गई."
जब नादिर शाह के सैनिकों ने चिनाब नदी पर बना पुल पार किया, उसके हर सैनिक की तलाशी ली गई. ज़ब्त होने के डर से बहुत से सैनिकों ने लूटा हुआ सोना और क़ीमती रत्न नदी में फेंक दिए. उन्हें उम्मीद थी कि एक दिन वापस आकर वो बेशक़ीमती पत्थर नदी की तली से फिर निकाल लेंगे.
नादिर शाह की लूट के नौ साल बाद तक मोहम्मद शाह रंगीला ने दिल्ली पर राज किया.
अपने अंतिम दिनों में उसे पक्षाघात हुआ. शेख़ अहमद हुसैन मज़ाक ने अपनी किताब 'तारीख़-ए-अहमदी' में लिखा, "अपने अंतिम समय में बार-बार बुख़ार आने के कारण मोहम्मद शाह बहुत कमज़ोर हो गए थे. अपनी मौत से एक दिन पहले मोहम्मद शाह रंगीला को क़िले के अंदर बनी मस्जिद में ले जाया गया. वहाँ उनके सारे दरबारी और सहयोगी मौजूद थे. अचानक बोलते बोलते वो बेहोश हो गए और फिर कभी उठ नहीं सके."
अगली सुबह 17 अप्रैल, 1748 को अपने शासन के 31वें वर्ष में उन्होंने अंतिम साँस ली. बाद में उनकी इच्छा के मुताबिक़ निज़ामुद्दीन औलिया के मक़बरे के अहाते में उन्हें दफ़नाया गया.
उनके जीवनीकार ज़हीरउद्दीन मलिक ने लिखा, "अपनी तमाम कमियों के बावजूद अपने दरबार में उन्होंने हमेशा शिष्टाचार और तहज़ीब का ख़्याल रखा. उन्होंने अपने दरबार को जहाँदार शाह की तरह शराब और व्यभिचार का अड्डा नहीं बनने दिया. कठिन परस्थितियों में उनका दिल्ली की गद्दी पर तीस साल से अधिक राज कर पाना बताता है कि उनमें राजनीतिक चतुराई और दक्षता की कमी नहीं थी."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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