मालवा की रानी अहिल्याबाई को जन कल्याण के बहुत से कामों के लिए आज भी देश के अलग-अलग कोनों में बहुत सम्मान के साथ याद किया जाता है.
वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर और गुजरात के सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार से उनको बहुत प्रसिद्धि मिली लेकिन उनके योगदान की सूची में और भी बहुत कुछ है.
19वीं सदी के शुरू में भारत आए ब्रिटिश यात्री बिशप हेबर ने उनको 'भारत की सर्वश्रेष्ठ परोपकारी शासक' की संज्ञा दी थी.
भारत के स्वतंत्रता संघर्ष में शामिल रहीं एनी बेसेंट ने उनके बारे में कहा था, "अहिल्याबाई के शासनकाल को मालवा के स्वर्ण युग के रूप में याद किया जाएगा. सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और सेवा भाव उन्हें दिव्यता की ओर ले गया."
ब्रिटिश इतिहासकार जॉन कीए ने उन्हें 'दार्शनिक रानी' की संज्ञा दी थी. वो न सिर्फ़ एक बेख़ौफ़ नेता थीं बल्कि एक चतुर शासक भी थीं.
अहिल्याबाई का जन्म 31 मई, 1725 को महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास चौड़ी क़स्बे में हुआ था.
उस ज़माने में जब लड़कियों की शिक्षा का चलन नहीं था तब उनके माता-पिता ने न सिर्फ़ उन्हें शिक्षा दिलवाई बल्कि घुड़सवारी, तीरंदाज़ी और तलवारबाज़ी में भी पारंगत किया.
खांडेराव से विवाहमालवा के सूबेदार मल्हार राव ने अहिल्याबाई को एक मंदिर में देखा. उनके मन में आया कि वो उनके बेटे खांडेराव के लिए अच्छी पत्नी साबित होंगी.
खांडेराव न तो शिक्षित थे और न ही राज-काज में उनकी कोई दिलचस्पी थी.
सन 1733 में खांडेराव और अहिल्याबाई का विवाह हो गया. उस समय अहिल्याबाई की उम्र सिर्फ़ आठ साल थी. अहिल्याबाई ने खांडेराव का स्वभाव बदलने की पूरी कोशिश की.
इसका असर हुआ और खांडेराव ने न सिर्फ़ राज्य के कामों में दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी बल्कि वो अपने पिता के साथ लड़ाई के मैदान में भी जाने लगे.
सन 1745 में अहिल्याबाई ने एक पुत्र मालेराव को जन्म दिया. तीन वर्ष बाद उनकी एक पुत्री भी पैदा हुई जिसका नाम मुक्ताबाई रखा गया.
सन 1754 में खांडेराव अपने पिता के साथ राजपूताना गए.
अरविंद जावलेकर अहिल्याबाई की जीवनी में लिखते हैं, "उन्होंने राजपूताना के कई राजघरानों से चौथ वसूल की लेकिन जब वो भरतपुर पहुंचे तो वहाँ के राजा सूरजमल ने चौथ देने से इनकार कर दिया. जब सारे प्रयास विफल हो गए तो उन्होंने भरतपुर पर हमला बोल दिया. भरतपुर के जाट भी उनका सामना करने के लिए आगे आ गए. उनकी चलाई एक गोली खांडेराव के सीने में लगी और वो वहीं मारे गए."

विजया जागीरदार अपनी किताब 'कर्मयोगिनी, लाइफ़ ऑफ़ अहिल्याबाई होल्कर' में लिखती हैं कि उन्होंने अपने पति की मृत्यु के बाद सती होने का फ़ैसला कर लिया था और ऐसा न करने के लिए उनके ससुर ने उन्हें मनाया था.
विजया जागीरदार लिखती हैं, "मल्हार राव ने अहिल्या से कहा, मैंने अब तक तुम्हें जो कुछ सिखाया है उसके बदले में मैं तुमसे एक चीज़ माँगता हूँ, तुम्हारा जीवन. कृपया इस बूढ़े व्यक्ति पर दया करो. ये कहकर मल्हार राव ज़मीन पर गिर पड़े."
अहिल्या ने अपने ससुर की बात मानी और तय किया कि उनका बाक़ी का जीवन अपने लोगों की सेवा में व्यतीत होगा.
मालवा में रहते हुए अहिल्या ने न सिर्फ़ वहाँ का प्रशासन बख़ूबी चलाया बल्कि लड़ाई के मैदान में लड़ रहे अपने ससुर को हथियारों और खाने की खेप पहुंचाई. कुछ छोटी लड़ाइयों में उन्होंने युद्ध क्षेत्र में जाकर लड़ाई का नेतृत्व भी किया.
लेकिन उम्र की वजह से उनके ससुर की तबीयत ख़राब रहने लगी और उनके कान में असहनीय दर्द रहने लगा.
आख़िरकार 30 मई, 1766 को 73 वर्ष की आयु में मल्हार राव ने भी अपने प्राण त्याग दिए.
उसके बाद मल्हार राव के पोते और अहिल्याबाई के बेटे मालेराव को मालवा का सूबेदार बनाया गया लेकिन राज्य का प्रशासन सही मायनों में अहिल्याबाई के हाथों में था.
मालेराव में वो सब अवगुण थे जो कई बार अमीर परिवारों के बच्चों में होते हैं.
अरविंद जावलेकर लिखते हैं, "मालेराव को नदियों में नहाने और हाथियों को नहाते देखने का शौक था. वो पढ़ाने आए शिक्षकों के जूतों में बिच्छू छिपा देते थे और जब बिच्छू उन्हें काट खाते थे तो वो उन्हें तड़पता हुआ देखकर आनंदित होते थे. सत्ता मिलने के बाद लोगों के प्रति उनका व्यवहार और ख़राब हो गया. एक बार वो गंभीर रूप से बीमार पड़े. उन्हें ठीक करने की भरसक कोशिश की गई लेकिन वो ठीक नहीं हो सके."
नौ महीने शासन करने के बाद सिर्फ़ 23 वर्ष की आयु में उनका भी देहावसान हो गया.
मालेराव की मृत्यु के बाद मालवा की सत्ता अहिल्याबाई के हाथों में आ गई. उनको सलाह दी गई कि वो एक नाबालिग बच्चे को गोद लेकर उसे सूबेदार बना दें लेकिन उन्होंने इस सलाह को स्वीकार नहीं किया.
महारानी का ये फ़ैसला रियासत के दीवान गंगाधर चंद्रचूड़ को पसंद नहीं आया, वे चाहते थे कि गद्दी पर कोई पुरुष ही बैठे.
उन्होंने रघुनाथ पेशवा को पत्र लिखकर कहा कि संतान रहित मालेराव की मृत्यु के बाद राज्य का कोई वैध वारिस नहीं रहा इसलिए आप एक बड़ी सेना के साथ आएं और रियासत पर क़ब्ज़ा कर लें.
अहिल्याबाई के जासूस उन्हें गंगाधर के एक-एक क़दम की सूचना दे रहे थे. उन्होंने तुरंत गंगाधर और रघुनाथ के मंसूबों पर पानी फेरने का फ़ैसला किया.
इसके बाद उन्होंने दीवान गंगाधर को हटाकर राज्य का प्रशासन अपने हाथों में ले लिया.
उन्होंने नर्मदा नदी के किनारे माहेश्वर में अपनी नई राजधानी बनाई. अपने जीवन के बाकी 28 वर्ष उन्होंने इसी स्थान पर बिताए.
अरविंद जावलेकर लिखते हैं, "माहेश्वर में ही उन्होंने अपना निवास स्थान बनवाया जो कि राजमहल कम, आश्रम अधिक लगता था. ये एक छोटा साधारण दो मंज़िला घर था जो कि किसी भी मध्यवर्गीय इंसान का हो सकता था. इसी छोटे से घर में अहिल्याबाई राजाओं, मंत्रियों, सिपहसालारों और आम जनता से मिलती थीं और राष्ट्रीय महत्व के फ़ैसले लिया करती थीं. एक कमरे में उन्होंने अपने पूजाघर के लिए छोटी-सी जगह रख छोड़ी थी जहाँ हर सुबह पूजा किया करती थीं."

माहेश्वर में अपनी राजधानी स्थानांतरित करने के बाद उन्होंने प्रशासनिक सुधारों को तरजीह देनी शुरू कर दी थी.
अपने नागरिकों को चोरों और डाकुओं से बचाने के लिए उन्होंने कुछ कड़े फ़ैसले लेने का मन बनाया.
उन्होंने अपने सलाहकारों की बैठक बुलाकर ऐलान किया कि जो कोई उनके नागरिकों को चोरों और डाकुओं से छुटकारा दिलाएगा उससे वो अपनी बेटी का विवाह करेंगी.
ये सुनते ही एक युवा व्यक्ति यशवंतराव फणसे अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ.
उसने कहा कि 'मैं इस चुनौती को स्वीकार करता हूँ' बशर्ते उन्हें राज्य संसाधनों का पूरा सहयोग मिले.
थोड़े ही समय में राज्य ने सक्रिय चोरों और डाकुओं से निजात पा ली. अहिल्याबाई ने अपना वादा पूरा करते हुए यशवंतराव से अपनी बेटी की शादी कर दी.
वहीं राजपूतों के बीच रानी के ख़िलाफ़ एक विद्रोह जन्म ले रहा था. लालसेतो की लड़ाई में महादजी सिंधिया की हार हुई थी और उनके सैनिक राजस्थान से भाग खड़े हुए थे.
नतीजा ये हुआ कि राजस्थान में मराठों का प्रभाव घटने लगा. इसका फ़ायदा उठाते हुए राजपूत शक्तियाँ मराठों के ख़िलाफ़ लामबंद होने लगी थीं.
इसकी ख़बर मिलते ही रानी ने अपनी सेना लेकर राजपूतों पर चढ़ाई कर दी थी.
अरविंद जावलेकर लिखते हैं, "विद्रोहियों के नेता सौभाग सिंह चंद्रावत ने भागकर एक क़िले में शरण ली थी. अहिल्याबाई की सेना ने क़िले को चारों ओर से घेर लिया था. उनके पास एक बहुत मशहूर तोप 'ज्वाला' हुआ करती थी. उसके गोलों ने क़िले को बर्बाद कर दिया था. आख़िरकार विद्रोहियों के नेता सौभाग सिंह चंद्रावत को पकड़कर रानी के सामने लाया गया. रानी ने आदेश दिया कि उनको तोप के मुँह पर बाँधकर मार डाला जाए."
चंद्रावत की मौत के बाद सभी विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया था. चार साल बाद हुए एक और विद्रोह में उन्होंने ख़ुद जाकर विद्रोह को कुचला था.
अहिल्याबाई का रंग साँवला था. वो मझोले क़द की महिला थीं जिनके काफ़ी घने बाल थे. उस समय पर्दे की प्रथा होने के बावजूद उन्होंने कभी पर्दा नहीं किया. उनकी सोच प्रजातांत्रिक थी.
उनके सहायक भी उसी कक्ष में उनके साथ भोजन करते थे जिसमें वो भोजन किया करती थीं.
ग्वालियर के महाराजा महादजी सिंधिया के प्रति उनके मन में बहुत सम्मान था. वो भी उनको 'मातोश्री' कह कर संबोधित करते थे.
अरविंद जावलेकर लिखते हैं, "प्रतिदिन अहिल्याबाई सूर्योदय से एक घंटे पहले उठती थीं. वो नर्मदा के तट पर जाकर स्नान करती थीं. उसके बाद वो रामायण, महाभारत और वेदों का पाठ सुनती थीं. उसके बाद वो भिखारियों और शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को अनाज, कपड़ों और पैसों का दान देती थीं. वो हमेशा शाकाहारी खाना खाती थीं, हालांकि उनके परिवार में माँसाहारी भोजन खाने का चलन था. वो दिन में सिर्फ़ एक बार भोजन करती थीं. वो रात एक बजे तक जागकर राजकीय काम निपटाती थीं."
होल्कर परिवार की ख़ासियत थी कि वो अपने निजी और पारिवारिक ख़र्चों के लिए सरकारी फ़ंड से पैसा नहीं लेते थे. उनके निजी ख़र्चों के लिए उनका निजी फ़ंड हुआ करता था.
कई मंदिरों के जीर्णोद्धार के अलावा अहिल्याबाई ने कई नदियों पर घाट बनवाए थे. इसके अलावा उन्होंने कई अस्पतालों का निर्माण और कुएं खुदवाए थे.
उनके शासनकाल में मूर्तिकार और शिल्पकार हर समय व्यस्त रहते थे.
सर जॉन माल्कम ने अपनी किताब 'मेमोरीज़ ऑफ़ सेंट्रल इंडिया' में लिखा था, "मेरे साथी कैप्टन डीटी स्टुअर्ट रास्ते में काफ़ी मुश्किलों के बाद 1818 में बद्रीनाथ पहुंच पाए थे. लेकिन वो ये देखकर दंग रह गए थे कि बद्रीनाथ जैसे अलग-थलग और दुर्गम इलाके़ में भी अहिल्याबाई ने तीर्थयात्रियों के लिए धर्मशालाओं और पानी की व्यवस्था करवा रखी थी. उन्होंने ये भी पाया कि देवप्रयाग में रानी के सौजन्य से एक सार्वजनिक रसोई चल रही थी जहाँ तीर्थयात्रियों को खाना खिलवाया जाता था."

अहिल्याबाई का निजी जीवन बहुत दुख भरा रहा, बुढ़ापे में वे बिल्कुल अकेली हो गईं और बीमार पड़ गईं. उन्होंने नियमित रूप से दवाएं भी नहीं खाईं. 13 अगस्त, 1795 की सुबह से अहिल्याबाई सिर्फ़ गंगा जल ही पी रही थीं.
उन्होंने ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें एक गाय दान में दी. कुछ ही देर बाद उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया. ख़बर सुनते ही एक बड़ी भीड़ उनके अंतिम दर्शन के लिए माहेश्वर में खड़ी हो गई.
उनका अंतिम संस्कार माहेश्वर में नर्मदा नदी के घाट पर किया गया.
जदुनाथ सरकार अहिल्याबाई को भारत की सबसे बड़ी महिला शासक मानते हैं.
वो लिखते हैं, "शासक और अपार धन की मालिक होते हुए भी उन्होंने एक सादा और आध्यात्मिक जीवन जिया. लेकिन वो एक उच्च कोटि की राजनीतिज्ञ भी थीं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
You may also like
IPL 2025 : भारत के पूर्व तेज गेंदबाज ने Qualifier 2 में MI को मिली हार का जिम्मेवार हार्दिक पांड्या को बताया, कहा- बॉलिंग चेंज में चूक...
जसप्रीत बुमराह की राह पर मयंक यादव, पीठ की चोट के लिए न्यूजीलैंड में करा सकते हैं सर्जरी
इस हफ्ते की नई हिंदी OTT रिलीज़: 'Stolen', 'Chhal Kapat' और 'Lafangey'
मंदिर से दर्शन कर लाैट रही छात्रा की सड़क हादसे में मौत, दोस्त की हालत नाजुक
मणिरत्नम के जन्मदिन पर मनीषा कोइराला ने किया दिल छू लेने वाला संदेश साझा