डोनाल्ड ट्रंप की सरकार की 50% टैरिफ की मार से उबर ही रहा भारत अब एक और सच्चाई से रूबरू हो रहा है. ऐसा लग रहा है कि ट्रंप ने भारत को खास तौर पर जानबूझकर निशाना बनाया है, जबकि रूस के असली मददगार चीन को उन्होंने आराम से निकल जाने दिया.
जिस भारतीय नेतृत्व ने कभी ट्रंप के सत्ता में आने का स्वागत किया था और सोचा था कि भारत-अमेरिका मिलकर कोई बड़ा फायदेमंद समझौता करेंगे, आज वही नेतृत्व हैरान-परेशान दिख रहा है. किसी ने सोचा भी नहीं था कि भारत ही एकमात्र देश बनेगा जिस पर अमेरिका ने धमकी से भी ज्यादा सख्त टैरिफ थोप दिए. रॉयटर्स के मुताबिक, एक सरकारी अधिकारी ने यह तक कहा, 'जब अमेरिका ने वियतनाम, इंडोनेशिया, जापान और यूरोपीय यूनियन से बेहतर डील कर लिए, तब हमें वैसा राजनयिक सपोर्ट नहीं मिल पाया.'
शायद यही वजह है कि भारत सरकार की प्रतिक्रिया अब तक बहुत सधी हुई और शांत रही है. नई दिल्ली अभी भी उम्मीद लगाए बैठी है कि बातचीत से रास्ता निकल सकता है. विदेश मंत्रालय ने इन टैरिफ को 'अनुचित, अन्यायपूर्ण और गैरजरूरी' करार दिया और साथ ही ये भी याद दिलाया कि अमेरिका अब भी रूस से अरबों डॉलर के फर्टिलाइजर और यूरेनियम खरीद रहा है. बयान में यूरोपीय यूनियन पर भी तंज कसा गया, जो भारत के साथ खुला व्यापार चाहता है, न कि टैरिफ की दीवारें.
रूस से कारोबार करने में भारत अकेला नहीं
सच तो ये है कि रूस से कारोबार करने में भारत अकेला नहीं है. जैसे जापान ने हाल ही में फिर से रूस से क्रूड ऑयल खरीदना शुरू कर दिया है, लेकिन कोई भी उस पर सवाल नहीं उठा रहा. भारत सरकार के बयान में यह तो कहा गया कि अमेरिका के टैरिफ 'अनुचित' हैं, लेकिन ये नहीं कहा गया. जबकि कहा जा सकता था कि चीन रूस से बहुत बड़ी मात्रा में क्रूड ऑयल और गैस खरीद रहा है, और फिर भी अमेरिका ने उस पर कोई सख्त कदम नहीं उठाया.
भारत ने इस पर खुलकर कुछ नहीं कहा, लेकिन अंदर ही अंदर नाराजगी जरूर है. अगर वाकई ट्रंप का मकसद रूस पर दबाव बनाना है, तो चीन पर सख्ती करना ज्यादा सही होता. क्योंकि चीन तो रूस को भारत से कहीं ज्यादा आर्थिक और राजनीतिक मदद देता है. ऐसे में सवाल उठता है- क्या ट्रंप का निशाना चुनना वाकई न्यायसंगत है?
चीन को नहीं छेड़ पा रहा अमेरिका
ऐसा लगता है कि अब चीन इतना ताकतवर हो गया है कि ट्रंप उसे खुलकर चुनौती नहीं दे पा रहे हैं. चीन के साथ अमेरिका का रवैया कुछ नरम है, उसके साथ बातचीत के लिए ज्यादा समय दिया जा रहा है, और तब तक वह आराम से रूस की मदद कर रहा है. भारत को ऐसी छूट नहीं दी गई. ट्रंप ने जरूर कहा है कि वे चीन पर भी रूस से तेल खरीदने को लेकर टैरिफ लगा सकते हैं, लेकिन उनके एक सलाहकार ने साफ किया कि इसकी संभावना बहुत कम है.
भारत की नाराजगी अब अमेरिका से
भारत को सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही है कि चीन को तो कोई कुछ नहीं कह रहा, लेकिन भारत पर सीधा दबाव बनाया जा रहा है. अब नाराजगी चीन से हटकर अमेरिका की तरफ बढ़ रही है. भारत में कई नीति-निर्माता जो पहले अमेरिका से उम्मीद करते थे कि वह चीन के खिलाफ सख्ती करेगा, अब खुद को धोखा खाया हुआ महसूस कर रहे हैं क्योंकि अमेरिका चीन से टकराने के बजाय भारत पर सख्ती कर रहा है. इस पूरी स्थिति में चीन और मजबूत दिख रहा है, जैसे ट्रंप से मुकाबला करने की हिम्मत सिर्फ उसी में है.
रूसी क्रूड ऑयल भारत के लिए उतना जरूरी भी नहीं
भारत को रूसी क्रूड ऑयल से जितना फायदा हुआ है, वह भी उतना बड़ा नहीं है जितना बाहर से लगता है. ICRA नाम की एक रेटिंग एजेंसी के मुताबिक, भारत ने पिछले साल रूस से सस्ता तेल खरीदकर सिर्फ 3.8 बिलियन डॉलर की बचत की, जबकि उसने कुल 242 बिलियन डॉलर का क्रूड ऑयल आयात किया था. इतना ही नहीं, ये 3.8 बिलियन डॉलर की बचत भी सीधी जनता तक नहीं पहुंची. क्योंकि भारत उस तेल को रिफाइन करके बड़ी मात्रा में विदेशों में बेच देता है. इसका फायदा विदेशों को ज्यादा होता है, भारतीय लोगों को कम.
भारत ने जल्दबाजी की उम्मीद नहीं की थी
अब जब रूस से मिलने वाला तेल भी सस्ता नहीं रह गया है, तो भारत को लग रहा था कि धीरे-धीरे वह दूसरे देशों से जैसे- अमेरिका से क्रूड ऑयल खरीदना शुरू कर देगा. लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि अमेरिका इतनी जल्दी और इतनी सख्ती से दबाव बना देगा.
अब बदलाव करना राजनीतिक तौर पर मुश्किल
अब अगर भारत को रूस से क्रूड ऑयल खरीद कम करके दूसरे देशों की तरफ मुड़ना पड़ेगा और वो भी अमेरिका के दबाव में तो इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है. प्रधानमंत्री मोदी के विरोधी, जो अक्सर राष्ट्रवाद के मुद्दे पर उन्हें घेर नहीं पाते, अब इस मौके को हाथ से जाने नहीं दे रहे. वे कह रहे हैं कि मोदी ट्रंप के सामने नरम पड़ गए.
राष्ट्रवाद के शोर में ठंडे दिमाग से फैसला लेना मुश्किल
जब चारों ओर से ये आवाजें उठ रही हों कि भारत की प्रतिष्ठा दांव पर है, तो किसी भी नेता के लिए ठंडे दिमाग से फैसला लेना मुश्किल हो जाता है. खुद सरकार भी इस स्थिति की कुछ हद तक ज़िम्मेदार है — क्योंकि रूस से व्यापार में जो थोड़े-बहुत फायदे हुए, उन्हें उन्होंने राष्ट्रीय हित का बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया. अब सरकार को ही रास्ता निकालना होगा कि वह इस पूरे संदेश को धीरे से और सम्मानजनक ढंग से कैसे बदल सके.
अमेरिका विरोधी देश भारत को साथ लाने की कोशिश में
अब जब भारत अमेरिका की वजह से असहज स्थिति में है, तो कुछ अमेरिका-विरोधी देश इसका फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा ने PM मोदी को फोन कर एक साझा मोर्चा बनाने का सुझाव दिया है. ब्राजील पर भी राजनीतिक कारणों से अमेरिकी टैरिफ लगाए गए हैं. खबर है कि भारत के वरिष्ठ अधिकारी जल्द ही मास्को जा सकते हैं और खुद प्रधानमंत्री भी चीन यात्रा पर जा सकते हैं, जहां शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) की मीटिंग होने वाली है.
PM मोदी की चीन यात्रा की चर्चा अब संभव
यह सोच पाना भी मुश्किल था कि PM मोदी चीन जाएंगे. उन्होंने पिछले सात सालों में एक बार भी चीन की यात्रा नहीं की. लेकिन अब यह भी आश्चर्य की बात नहीं लगती, क्योंकि चीन पर ट्रंप की नीतियों का असर नहीं पड़ता. जबकि भारत को भुगतना पड़ रहा है.
जिस भारतीय नेतृत्व ने कभी ट्रंप के सत्ता में आने का स्वागत किया था और सोचा था कि भारत-अमेरिका मिलकर कोई बड़ा फायदेमंद समझौता करेंगे, आज वही नेतृत्व हैरान-परेशान दिख रहा है. किसी ने सोचा भी नहीं था कि भारत ही एकमात्र देश बनेगा जिस पर अमेरिका ने धमकी से भी ज्यादा सख्त टैरिफ थोप दिए. रॉयटर्स के मुताबिक, एक सरकारी अधिकारी ने यह तक कहा, 'जब अमेरिका ने वियतनाम, इंडोनेशिया, जापान और यूरोपीय यूनियन से बेहतर डील कर लिए, तब हमें वैसा राजनयिक सपोर्ट नहीं मिल पाया.'
शायद यही वजह है कि भारत सरकार की प्रतिक्रिया अब तक बहुत सधी हुई और शांत रही है. नई दिल्ली अभी भी उम्मीद लगाए बैठी है कि बातचीत से रास्ता निकल सकता है. विदेश मंत्रालय ने इन टैरिफ को 'अनुचित, अन्यायपूर्ण और गैरजरूरी' करार दिया और साथ ही ये भी याद दिलाया कि अमेरिका अब भी रूस से अरबों डॉलर के फर्टिलाइजर और यूरेनियम खरीद रहा है. बयान में यूरोपीय यूनियन पर भी तंज कसा गया, जो भारत के साथ खुला व्यापार चाहता है, न कि टैरिफ की दीवारें.
रूस से कारोबार करने में भारत अकेला नहीं
सच तो ये है कि रूस से कारोबार करने में भारत अकेला नहीं है. जैसे जापान ने हाल ही में फिर से रूस से क्रूड ऑयल खरीदना शुरू कर दिया है, लेकिन कोई भी उस पर सवाल नहीं उठा रहा. भारत सरकार के बयान में यह तो कहा गया कि अमेरिका के टैरिफ 'अनुचित' हैं, लेकिन ये नहीं कहा गया. जबकि कहा जा सकता था कि चीन रूस से बहुत बड़ी मात्रा में क्रूड ऑयल और गैस खरीद रहा है, और फिर भी अमेरिका ने उस पर कोई सख्त कदम नहीं उठाया.
भारत ने इस पर खुलकर कुछ नहीं कहा, लेकिन अंदर ही अंदर नाराजगी जरूर है. अगर वाकई ट्रंप का मकसद रूस पर दबाव बनाना है, तो चीन पर सख्ती करना ज्यादा सही होता. क्योंकि चीन तो रूस को भारत से कहीं ज्यादा आर्थिक और राजनीतिक मदद देता है. ऐसे में सवाल उठता है- क्या ट्रंप का निशाना चुनना वाकई न्यायसंगत है?
चीन को नहीं छेड़ पा रहा अमेरिका
ऐसा लगता है कि अब चीन इतना ताकतवर हो गया है कि ट्रंप उसे खुलकर चुनौती नहीं दे पा रहे हैं. चीन के साथ अमेरिका का रवैया कुछ नरम है, उसके साथ बातचीत के लिए ज्यादा समय दिया जा रहा है, और तब तक वह आराम से रूस की मदद कर रहा है. भारत को ऐसी छूट नहीं दी गई. ट्रंप ने जरूर कहा है कि वे चीन पर भी रूस से तेल खरीदने को लेकर टैरिफ लगा सकते हैं, लेकिन उनके एक सलाहकार ने साफ किया कि इसकी संभावना बहुत कम है.
भारत की नाराजगी अब अमेरिका से
भारत को सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात से हो रही है कि चीन को तो कोई कुछ नहीं कह रहा, लेकिन भारत पर सीधा दबाव बनाया जा रहा है. अब नाराजगी चीन से हटकर अमेरिका की तरफ बढ़ रही है. भारत में कई नीति-निर्माता जो पहले अमेरिका से उम्मीद करते थे कि वह चीन के खिलाफ सख्ती करेगा, अब खुद को धोखा खाया हुआ महसूस कर रहे हैं क्योंकि अमेरिका चीन से टकराने के बजाय भारत पर सख्ती कर रहा है. इस पूरी स्थिति में चीन और मजबूत दिख रहा है, जैसे ट्रंप से मुकाबला करने की हिम्मत सिर्फ उसी में है.
रूसी क्रूड ऑयल भारत के लिए उतना जरूरी भी नहीं
भारत को रूसी क्रूड ऑयल से जितना फायदा हुआ है, वह भी उतना बड़ा नहीं है जितना बाहर से लगता है. ICRA नाम की एक रेटिंग एजेंसी के मुताबिक, भारत ने पिछले साल रूस से सस्ता तेल खरीदकर सिर्फ 3.8 बिलियन डॉलर की बचत की, जबकि उसने कुल 242 बिलियन डॉलर का क्रूड ऑयल आयात किया था. इतना ही नहीं, ये 3.8 बिलियन डॉलर की बचत भी सीधी जनता तक नहीं पहुंची. क्योंकि भारत उस तेल को रिफाइन करके बड़ी मात्रा में विदेशों में बेच देता है. इसका फायदा विदेशों को ज्यादा होता है, भारतीय लोगों को कम.
भारत ने जल्दबाजी की उम्मीद नहीं की थी
अब जब रूस से मिलने वाला तेल भी सस्ता नहीं रह गया है, तो भारत को लग रहा था कि धीरे-धीरे वह दूसरे देशों से जैसे- अमेरिका से क्रूड ऑयल खरीदना शुरू कर देगा. लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कि अमेरिका इतनी जल्दी और इतनी सख्ती से दबाव बना देगा.
अब बदलाव करना राजनीतिक तौर पर मुश्किल
अब अगर भारत को रूस से क्रूड ऑयल खरीद कम करके दूसरे देशों की तरफ मुड़ना पड़ेगा और वो भी अमेरिका के दबाव में तो इसकी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ सकती है. प्रधानमंत्री मोदी के विरोधी, जो अक्सर राष्ट्रवाद के मुद्दे पर उन्हें घेर नहीं पाते, अब इस मौके को हाथ से जाने नहीं दे रहे. वे कह रहे हैं कि मोदी ट्रंप के सामने नरम पड़ गए.
राष्ट्रवाद के शोर में ठंडे दिमाग से फैसला लेना मुश्किल
जब चारों ओर से ये आवाजें उठ रही हों कि भारत की प्रतिष्ठा दांव पर है, तो किसी भी नेता के लिए ठंडे दिमाग से फैसला लेना मुश्किल हो जाता है. खुद सरकार भी इस स्थिति की कुछ हद तक ज़िम्मेदार है — क्योंकि रूस से व्यापार में जो थोड़े-बहुत फायदे हुए, उन्हें उन्होंने राष्ट्रीय हित का बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया. अब सरकार को ही रास्ता निकालना होगा कि वह इस पूरे संदेश को धीरे से और सम्मानजनक ढंग से कैसे बदल सके.
अमेरिका विरोधी देश भारत को साथ लाने की कोशिश में
अब जब भारत अमेरिका की वजह से असहज स्थिति में है, तो कुछ अमेरिका-विरोधी देश इसका फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा ने PM मोदी को फोन कर एक साझा मोर्चा बनाने का सुझाव दिया है. ब्राजील पर भी राजनीतिक कारणों से अमेरिकी टैरिफ लगाए गए हैं. खबर है कि भारत के वरिष्ठ अधिकारी जल्द ही मास्को जा सकते हैं और खुद प्रधानमंत्री भी चीन यात्रा पर जा सकते हैं, जहां शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) की मीटिंग होने वाली है.
PM मोदी की चीन यात्रा की चर्चा अब संभव
यह सोच पाना भी मुश्किल था कि PM मोदी चीन जाएंगे. उन्होंने पिछले सात सालों में एक बार भी चीन की यात्रा नहीं की. लेकिन अब यह भी आश्चर्य की बात नहीं लगती, क्योंकि चीन पर ट्रंप की नीतियों का असर नहीं पड़ता. जबकि भारत को भुगतना पड़ रहा है.
You may also like
सावन विशेष : 8 महीने जलमग्न रहता है ये शिवालय, पांडव निर्मित मंदिर के नीचे हैं 'स्वर्ग की सीढ़ियां'
त्वचा रोगों से लेकर पाचन तक, जाने कृष्ण सारिवा के अद्भुत लाभ
सोने की कीमत 1.01 लाख रुपए प्रति दस ग्राम के करीब, चांदी के दाम हुए कम
बिहार : मां जानकी मंदिर बनने को लेकर श्रद्धालुओं में उत्साह, मोदी सरकार का जताया आभार
रक्षा जरूरतों के लिए देशभर की आईआईटी में 'मानेकशॉ केंद्र' आईआईटी गुवाहाटी की पहल