छत्तीसगढ़ एक सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध राज्य है, जहाँ जीवन का हर पल उत्सव की तरह मनाया जाता है। यहाँ के अधिकांश त्योहार कृषि पर आधारित होते हैं और फसल के चक्र के अनुसार मनाए जाते हैं। बस्तर क्षेत्र की संस्कृति अद्वितीय है, जहाँ वनों की हरियाली, नदियों की कलकल ध्वनि और जनजातीय सांस्कृतिक धरोहर इन त्योहारों को विशेष बनाती है। कार्तिक अमावस्या के समय, जब अन्य स्थानों पर दीपावली का उत्सव मनाया जाता है, तब छत्तीसगढ़ में सुरहूति और गौरी गौरा पूजन का आयोजन होता है, जिसके बाद बस्तर के गांवों में दियारी तिहार की रौनक बिखरती है।
दियारी तिहार का महत्व
दियारी तिहार बस्तर के जनजातीय समुदायों के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व है, जो उनके जीवन, आस्था और परंपरा को एक सूत्र में पिरोता है। यह पर्व केवल एक दिन का नहीं, बल्कि डेढ़ महीने तक चलने वाला उत्सव है, जो धान की कटाई के बाद शुरू होता है और जनवरी के अंत तक चलता है। हर गांव में इसकी तिथि अलग-अलग होती है, जिसे सिरहा, गांयता और पटेल मिलकर तय करते हैं। यह सामुदायिक निर्णय दर्शाता है कि दियारी तिहार केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक समरसता और एकता का प्रतीक भी है।
त्योहार के दिन
पहला दिन धोरई (चरवाहों) के नाम होता है, जो श्रम और कृतज्ञता का उत्सव है। धोरई, जो पूरे वर्ष पशुधन की देखभाल करते हैं, इस दिन विशेष सम्मान के पात्र होते हैं। पशुपालक परिवार उन्हें आमंत्रित कर भोजन कराते हैं। बदले में धोरई, बैलों के गले में जेठा तथा गायों के गले में सोहई बांधते हैं। शाम को गांव में लोकगीतों और वाद्ययंत्रों की गूंज होती है।
दूसरा दिन सबसे शुभ माना जाता है। इस दिन घरों में विशेष भोजन बनाया जाता है और गायों तथा बैलों की पूजा की जाती है। पूजा के बाद उन्हें खिचड़ी खिलाई जाती है। महिलाएं दीवारों पर पारंपरिक चित्र बनाती हैं और गांव में उत्सव का माहौल रहता है।
तीसरे दिन पशुओं को गौठान लाया जाता है और वहां देव की पूजा की जाती है। महुआ मंद अर्पित की जाती है और देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है।
अगले दिन ‘बासी तिहार’ मनाया जाता है, जहां सामूहिक भोज और लोकनृत्य का आयोजन होता है। बच्चे चावल के आटे से दीपक बनाते हैं और सामूहिक समृद्धि की प्रार्थना करते हैं।
गौरी गौरा पूजा
मध्य छत्तीसगढ़ में गोंड़ जनजातीय समाज गौरी गौरा पूजा करता है, जिसमें सभी वर्ग के लोग शामिल होते हैं। इस पर्व के संबंध में एक किवंदती प्रचलित है, जिसमें कहा जाता है कि एक गोंड़ दंपत्ति ने पार्वती की तपस्या की थी।
रात में युवतियां पारंपरिक परिधानों में सिर पर मिट्टी के घड़े रखकर, जिन पर दीपक जल रहा होता है, गीत गाती हुई बारात के रूप में निकलती हैं। यह ‘इशर-गौरा विवाह’ की प्रतीकात्मक झांकी होती है।
दियारी तिहार का सार
दियारी तिहार केवल एक पर्व नहीं, बल्कि बस्तर की आत्मा है। यह समाजिक समरसता का प्रतीक है और सच्ची समृद्धि का संदेश देता है। मिट्टी के दीये केवल घर नहीं, दिलों को भी प्रकाशित करते हैं।
आचार्य ललित मुनि
लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं
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