लाइव हिंदी खबर :- वैसे तो वाराणसी में सैकड़ों मंदिर हैं, लेकिन सभी मंदिरों में प्राचीन रत्नेश्वर महादेव मंदिर भक्तों के आकर्षण का मुख्य केंद्र है. इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह लगभग 400 वर्षों से 9 डिग्री के कोण पर झुका हुआ है। रत्नेश्वर महादेव मंदिर मणिकर्णिका घाट के नीचे बना है। घाट के नीचे होने के कारण यह मंदिर साल में 8 महीने गंगाजल में आधा डूबा रहता है।
अद्भुत बनावट: इस मंदिर में अद्भुत शिल्प कार्य किया गया है। कलात्मक रूप से यह बेहद आलीशान है। इस मंदिर को लेकर कई तरह की किंवदंतियां प्रचलित हैं।
क्या है रत्नेश्वर महादेव मंदिर का रहस्य: इस मंदिर के भी हैं अनोखे रहस्य। पहले इस मंदिर के छज्जे की ऊंचाई जहां जमीन से 7 से 8 फुट होती थी, अब वह सिर्फ 6 फुट रह गई है। हालांकि यह मंदिर सैकड़ों वर्षों से 9 डिग्री पर झुका हुआ है, लेकिन समय के साथ इसका झुकाव बढ़ता ही जा रहा है, जिसका पता वैज्ञानिक भी नहीं लगा पाए।
क्यों डूबा रहता है मंदिर, जानिए वजह: यह मंदिर मणिकर्णिका घाट के ठीक नीचे है, जिसके कारण गंगा का पानी ऊपर उठने पर यह मंदिर 6 से 8 महीने तक पानी में डूबा रहता है। कभी कभी पानी ऊपर से ऊपर तक भरा रहता है। ऐसे में मंदिर में सिर्फ 3-4 महीने ही पूजा की जा सकती है. 6 से 8 महीने तक पानी में रहने के बावजूद इस मंदिर को कोई नुकसान नहीं है।
मंदिर निर्माण: भारतीय पुरातत्व विभाग के अनुसार इस मंदिर का निर्माण 18वीं शताब्दी में किया गया था। ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 1857 में अमेठी के शाही परिवार ने करवाया था।
मंदिर की प्राचीन मान्यताएं: इस मंदिर के बारे में कई प्रसिद्ध पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि अहिल्याबाई होल्कर ने अपने शासनकाल में बनारस के आसपास कई मंदिरों का निर्माण करवाया था। अहिल्याबाई की एक दासी रत्नाबाई थी। रत्नाबाई मणिकर्णिका घाट के चारों ओर एक शिव मंदिर बनाना चाहती थीं। ऐसे में उन्होंने अपने पैसे से और थोड़े से अहिल्याबाई की मदद से मंदिर बनवाया। लेकिन जब मंदिर के नामकरण का समय आया तो रत्नाबाई इसे अपना नाम देना चाहती थीं, लेकिन अहिल्याबाई इसके खिलाफ थीं। इसके बावजूद रत्नाबाई ने रानी के खिलाफ जाकर मंदिर का नाम ‘रत्नेश्वर महादेव’ रखा। जब अहिल्याबाई को इस बात का पता चला तो उन्होंने क्रोधित होकर उन्हें श्राप दे दिया, जिससे मंदिर टेढ़ा हो गया। दूसरी कथा के अनुसार एक संत ने बनारस के राजा से इस मंदिर की देखभाल करने को कहा। लेकिन राजा ने संत की देखभाल की जिम्मेदारी देने से इनकार कर दिया। राजा की इस बात से संत नाराज हो गए और उन्होंने श्राप दिया कि यह मंदिर कभी पूजा के योग्य नहीं होगा।
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