दिवाली के फौरन बाद दिल्ली-NCR ही नहीं, पूरे उत्तर भारत में प्रदूषण से लोग त्रस्त होने लगते हैं। इस बार प्रदूषण को कम करने के इरादे से दिल्ली सरकार ने क्लाउड सीडिंग का प्रयोग शुरू किया है। लेकिन क्या प्रदूषण नियंत्रण के लिए क्लाउड सीडिंग लंबे वक्त में कारगर साबित हो सकती है? इसका जवाब किसी भी तरफ से हां में नहीं है।
पारंपरिक नजरिया: एक दशक से अधिक वक्त से दिल्ली-NCR जैसे क्षेत्रों में प्रदूषण से निपटने के लिए सरकार ऐसे उपाय कर रही है, जो प्रदूषण घटाने के लिए होते हैं। मगर जरूरत इस बात की है कि सरकार ऐसे उपाय लागू करे, जिससे प्रदूषण बढ़े ही नहीं। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है, जब तक सरकार लंबे समय की योजना बनाकर उपाय नहीं करती।
धुएं पर काबू: प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है धुआं। इस धुएं में हालांकि पराली जलने का भी अहम रोल है, लेकिन शहरों में बढ़ती गाड़ियों की संख्या की भी बड़ी भूमिका है। पराली को लेकर दिल्ली और पंजाब की सरकारों के बीच पहले से ही एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने की राजनीति चलती रही है। लेकिन अगर गाड़ियों के प्रदूषण पर भी रोक लग जाए तो कम से कम सर्दियों में प्रदूषण की वजह से इमरजेंसी जैसे हालात तो नहीं बनेंगे।
धूल पर रोक: धुएं के बाद प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह धूल होती है। इसे देखते हुए अमूमन GRAP के तहत निर्माण गतिविधियों पर रोक लगा दी जाती है। अगर सरकार इसकी जगह सड़कों पर उड़ने वाली धूल पर काबू पा ले तो काफी हद तक प्रदूषण पर रोक लग सकती है। धूल की वजह होती है सड़कों पर बने गड्ढे और सड़क किनारे पड़ा मलबा और मिट्टी। इसे लेकर कभी किसी शहर में बड़ा अभियान नहीं देखा गया। यह कार्य खुद सरकार और नगर निगमों को करना है। फिर भी इस दिशा में कभी कोशिशें होती नहीं दिखीं।
बसों की कमी: दिल्ली में इलेक्ट्रिक बसें आनी शुरू हो गई हैं लेकिन जिन बसों का किराया सस्ता होता है, उनकी बहुत कमी है। मेट्रो का व्यापक नेटवर्क है, लेकिन उसका किराया ऐसा है कि हर व्यक्ति उसे अफोर्ड नहीं कर सकता। मेट्रो के सफर के बाद भी लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए अलग से पैसा खर्च करना पड़ता है। ऐसे में पर्सनल दुपहिया या कार से जाने पर भी उनका खर्च लगभग उतना ही पड़ता है। यही वजह है कि मेट्रो का लंबा-चौड़ा नेटवर्क होने के बावजूद दिल्ली जैसे शहर में सड़कों पर गाड़ियों की संख्या कम नहीं हो रही।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट: एक्सपर्ट्स का यह मत रहा है कि किसी भी शहर में 50 से 60% लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग करना चाहिए, लेकिन दिल्ली जैसे शहर में आज भी 40% से भी कम लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते हैं। दूसरी ओर, सिंगापुर जैसी जगह पर 70-80% लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग करते हैं।
मेट्रो को सब्सिडी: सरकारें प्रदूषण नियंत्रण पर तो हर साल मोटी रकम खर्च करने को तैयार हैं, लेकिन ऐसे उपायों पर पैसा खर्च नहीं करतीं, जिनसे प्रदूषण को कम किया जा सके। सरकार को चाहिए कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए बेहतरीन और जरूरत के मुताबिक बसें लाए और जिन शहरों में मेट्रो है, वहां उसके किराए पर सब्सिडी दे।
जर्मनी की मिसाल: यूरोपीय देश जर्मनी इसका उदाहरण है। वहां की केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर सालाना तीन अरब यूरो की सब्सिडी देती हैं। यही वजह है कि वहां 59 यूरो में मासिक पास बन जाता है। वह पूरे देश के किसी भी शहर में न सिर्फ बसों में बल्कि मेट्रो और लोकल ट्रेनों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। क्या भारत में ऐसी कल्पना की जा सकती है?
बसों का सिस्टम हो दुरुस्त: दिल्ली समेत उत्तर भारत के अधिकांश शहरों में बसों का भरोसेमंद सिस्टम नहीं है। अगर सरकारें बाकायदा आकलन करके बसें खरीदें और निर्धारित अवधि पूरी होने पर उन्हें बदलती रहें तो काफी हद तक लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर शिफ्ट किया जा सकता है। अगर बसें भी मेट्रो की तरह ही तय वक्त पर अपने डेस्टिनेशन पर पहुंचने लगें तो लोग खुद ही उनसे यात्रा करने के लिए प्रोत्सााहित होंगे। इससे न सिर्फ ट्रैफिक जाम खत्म होगा बल्कि प्रदूषण पर भी नियंत्रण किया जा सकेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
पारंपरिक नजरिया: एक दशक से अधिक वक्त से दिल्ली-NCR जैसे क्षेत्रों में प्रदूषण से निपटने के लिए सरकार ऐसे उपाय कर रही है, जो प्रदूषण घटाने के लिए होते हैं। मगर जरूरत इस बात की है कि सरकार ऐसे उपाय लागू करे, जिससे प्रदूषण बढ़े ही नहीं। लेकिन यह तब तक संभव नहीं है, जब तक सरकार लंबे समय की योजना बनाकर उपाय नहीं करती।
धुएं पर काबू: प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह है धुआं। इस धुएं में हालांकि पराली जलने का भी अहम रोल है, लेकिन शहरों में बढ़ती गाड़ियों की संख्या की भी बड़ी भूमिका है। पराली को लेकर दिल्ली और पंजाब की सरकारों के बीच पहले से ही एक दूसरे को जिम्मेदार ठहराने की राजनीति चलती रही है। लेकिन अगर गाड़ियों के प्रदूषण पर भी रोक लग जाए तो कम से कम सर्दियों में प्रदूषण की वजह से इमरजेंसी जैसे हालात तो नहीं बनेंगे।
धूल पर रोक: धुएं के बाद प्रदूषण की सबसे बड़ी वजह धूल होती है। इसे देखते हुए अमूमन GRAP के तहत निर्माण गतिविधियों पर रोक लगा दी जाती है। अगर सरकार इसकी जगह सड़कों पर उड़ने वाली धूल पर काबू पा ले तो काफी हद तक प्रदूषण पर रोक लग सकती है। धूल की वजह होती है सड़कों पर बने गड्ढे और सड़क किनारे पड़ा मलबा और मिट्टी। इसे लेकर कभी किसी शहर में बड़ा अभियान नहीं देखा गया। यह कार्य खुद सरकार और नगर निगमों को करना है। फिर भी इस दिशा में कभी कोशिशें होती नहीं दिखीं।
बसों की कमी: दिल्ली में इलेक्ट्रिक बसें आनी शुरू हो गई हैं लेकिन जिन बसों का किराया सस्ता होता है, उनकी बहुत कमी है। मेट्रो का व्यापक नेटवर्क है, लेकिन उसका किराया ऐसा है कि हर व्यक्ति उसे अफोर्ड नहीं कर सकता। मेट्रो के सफर के बाद भी लास्ट माइल कनेक्टिविटी के लिए अलग से पैसा खर्च करना पड़ता है। ऐसे में पर्सनल दुपहिया या कार से जाने पर भी उनका खर्च लगभग उतना ही पड़ता है। यही वजह है कि मेट्रो का लंबा-चौड़ा नेटवर्क होने के बावजूद दिल्ली जैसे शहर में सड़कों पर गाड़ियों की संख्या कम नहीं हो रही।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट: एक्सपर्ट्स का यह मत रहा है कि किसी भी शहर में 50 से 60% लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग करना चाहिए, लेकिन दिल्ली जैसे शहर में आज भी 40% से भी कम लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का इस्तेमाल करते हैं। दूसरी ओर, सिंगापुर जैसी जगह पर 70-80% लोग पब्लिक ट्रांसपोर्ट का उपयोग करते हैं।
मेट्रो को सब्सिडी: सरकारें प्रदूषण नियंत्रण पर तो हर साल मोटी रकम खर्च करने को तैयार हैं, लेकिन ऐसे उपायों पर पैसा खर्च नहीं करतीं, जिनसे प्रदूषण को कम किया जा सके। सरकार को चाहिए कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट के लिए बेहतरीन और जरूरत के मुताबिक बसें लाए और जिन शहरों में मेट्रो है, वहां उसके किराए पर सब्सिडी दे।
जर्मनी की मिसाल: यूरोपीय देश जर्मनी इसका उदाहरण है। वहां की केंद्र और राज्य सरकारें मिलकर पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर सालाना तीन अरब यूरो की सब्सिडी देती हैं। यही वजह है कि वहां 59 यूरो में मासिक पास बन जाता है। वह पूरे देश के किसी भी शहर में न सिर्फ बसों में बल्कि मेट्रो और लोकल ट्रेनों में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। क्या भारत में ऐसी कल्पना की जा सकती है?
बसों का सिस्टम हो दुरुस्त: दिल्ली समेत उत्तर भारत के अधिकांश शहरों में बसों का भरोसेमंद सिस्टम नहीं है। अगर सरकारें बाकायदा आकलन करके बसें खरीदें और निर्धारित अवधि पूरी होने पर उन्हें बदलती रहें तो काफी हद तक लोगों को पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर शिफ्ट किया जा सकता है। अगर बसें भी मेट्रो की तरह ही तय वक्त पर अपने डेस्टिनेशन पर पहुंचने लगें तो लोग खुद ही उनसे यात्रा करने के लिए प्रोत्सााहित होंगे। इससे न सिर्फ ट्रैफिक जाम खत्म होगा बल्कि प्रदूषण पर भी नियंत्रण किया जा सकेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
You may also like

Bihar Election: मोकामा में जन सुराज के समर्थक की हत्या, जानिए बिहार में चुनावी हिंसा का काला इतिहास

राष्ट्रीय एकता दिवस: बहुधार्मिक लोगों ने पहलगाम से सांप्रदायिक सद्भाव का दिया संदेश

Jemmiah Rodrigues ने तोड़ा गौतम गंभीर का 2011 वर्ल्ड कप फाइनल का रिकॉर्ड,ऐसा करने वाली पहली भारतीय क्रिकेटर बनी

मध्य प्रदेश विकास और नवाचार के उत्प्रेरक के रूप में ड्रोन तकनीक का उपयोग करेगा: सीएम मोहन यादव

Bihar: इन चार विधानसभा सीटों ने किया तेजस्वी की नींद हराम! कांग्रेस- सीपीआई की फ्रेंडली फाइट में फंसे लालू के लाल




